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Sri Krishna Kundli Reading

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Sri Krishna Kundli Reading
  • 02 August 2021

Sri Krishna Kundli Reading

*कृष्ण जन्माष्टमी: भगवान श्री कृष्ण की जन्म तिथि एवं कुंडली विश्लेषण - शोध पत्र* 

 

*भगवान श्रीकृष्ण का जन्म :*  

 

*पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, खगोलीय घटनाओं, पुरातात्विक तथ्यों के आधार पर  16 कलाओं से परिपूर्ण भगवान विष्णु के आठवें अवतार के रूप में भगवान श्री कृष्ण का इस भूलोक पर अवतरण 8वें मनु वैवस्वत के मन्वंतर के 28वें द्वापर युग में हुआ था।* 

 

*पौराणिक शास्त्र तथा ज्योतिषीय शोध अध्ययन के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद मास में कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को महानिशीथ काल में वृष लग्न, रोहिणी नक्षत्र, निशीथ काल में दिनांक 21 जुलाई ईसा पूर्व 3228, दिन बुधवार, मध्य रात्रि में हुआ था।* 

 

*धार्मिक मान्यता के अनुसार श्री कृष्ण चंद्रवंशी थे, उनके पूर्वज चंददेव थे और वे बुध - चंद्रमा के पुत्र हैं. इसी कारण श्री कृष्ण ने चंद्रवंश में जन्म लेने के लिए बुधवार का दिन चुना था. पौराणिक ग्रंथों के अनुसार चंद्रदेव की अपनी 27 पत्नियों (नक्षत्रों) में से रोहिणी सर्वाधिक प्रिय पत्नी (नक्षत्र) हैं, जिस कारण श्री कृष्ण ने रोहिणी नक्षत्र में जन्म लिया था. वहीं, अष्टमी तिथि को जन्म लेने का भी एक कारण था. दरअसल, अष्टमी तिथि शक्ति का प्रतीक है. श्री कृष्ण शक्तिसम्पन्न, स्वमंभू और परब्रह्मा हैं इसलिए वो अष्टमी को जन्में थे. कहते हैं कि चंद्रमा रात में निकलता है और उन्होंने अपने पूर्वजों की उपस्थिति में जन्म लिया था.* 

 

*भगवान श्री कृष्ण के जन्म के समय ग्रहों की स्थिति:* 

 

*श्रीमद्भागवत की अन्वितार्थ प्रकाशिका टीका में दशम स्‍कन्‍ध के तृतीय अध्‍याय की व्‍याख्‍या में ख्‍माणिक्‍य ज्‍योतिष ग्रंथ के आधार पर लिखा है कि…* 

 

*उच्‍चास्‍था: शशिभौमचान्द्रिशनयो लग्‍नं वृषो लाभगो जीव:* *सिंहतुलालिषुक्रमवशात्‍पूषोशनोराहव:।* 

 

*नैशीथ: समयोष्‍टमी बुधदिनं ब्रह्मर्क्षमत्र क्षणे श्रीकृष्‍णाभिधमम्‍बुजेक्षणमभूदावि: परं ब्रह्म तत्।।* 

 

*ग्रहों की गणितीय स्थिति के अनुसार श्री कृष्ण के जन्म के समय क्षितिज पर वृष लग्न उदय हो रहा था तथा चंद्रमा और केतु लग्न में विराजित थे। चतुर्थ भाव सिंह राशि मे सूर्यदेव, पंचम भाव कन्या राशि में बुध, छठे भाव तुला राशि में शुक्र और शनिदेव, सप्तम भाव वृश्चिक राशि में राहु, भाग्य भाव मकर राशि में मंगल तथा लाभ स्थान मीन राशि में बृहस्पति स्थापित थे।* 

 

*इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण की जन्मकुंडली में राहु को छोड़कर सभी ग्रह अपनी स्वयं राशि अथवा उच्च अवस्था में स्थित थे। (भगवान श्री कृष्ण की जन्म कुंडली का उल्लेख ऊपर किया गया है.) इस समय हर्ष योग भी बन रहा था।*  

 

*इस जन्म कुंडली पर आधारित दशाक्रम भी सटीक उभरकर आता है। रोहिणी नक्षत्र के चतुर्थ चरण में जन्मे भगवान कृष्‍ण की बाल्‍यावस्‍था चंद्रमा की दशा में, किशोरावस्‍था मंगल की महादशा में और युवावस्‍था राहु की महादशा में बीती होगी। इसके बाद गुरु, शनि और बुध की दशाओं के दौरान भगवान श्रीकृष्‍ण ने महाभारत के सूत्रधार की भूमिका निभाई होगी।* 

 

*भगवान श्री कृष्ण की उपरोक्त जन्म कुंडली की प्रामाणिकता का विश्लेषण हम वैदिक ज्योतिष के सूत्रों के अनुसार भगवान श्री कृष्ण की जीवन लीला की विभिन्न महत्वपूर्ण घटनाओं के आधार पर भी कर सकते हैं। भगवान श्रीकृष्‍ण की कुण्‍डली के विश्लेषण से ज्‍योतिष के कई सूत्र भी स्‍पष्‍ट होते हैं। जैसे कि:* 

 

(1) *भगवान श्रीकृष्‍ण के छठे भाव में तुला राशि है। यह भाव मामा का भी है। भावात भाव सिद्धांत से तुला के ग्‍यारहवें यानी सिंह राशि का अधिपति सूर्य मामा के लिए बाधकस्‍थानाधिपति की भूमिका निभाएगा। करीब 11 साल की उम्र में भगवान श्रीकृष्‍ण कंस मामा का वध करते हैं। दशाओं का क्रम देखा जाए तो पहले करीब दस साल चंद्रमा के और उसके बाद छठे साल में मंगल की महादशा में सूर्य का अंतर आता है। यही अवधि होती है जब जातक के मामा का नाश होगा। यही सूरदासजी भी इंगित कर रहे हैं कि चतुर्थ भाव में स्‍वराशि का सूर्य मामा का नाश करवा रहा है।* 

 

(2).   *जन्म कुंडली के छठे भाव के बारे में सूरदासजी कहते हैं यहां स्‍वराशि का शुक्र उच्‍च के शनि के साथ विराजमान है, ऐसे जातक के सभी शत्रुओं का नाश होता है। ज्‍योतिष के अनुसार शनि के पक्‍के घरों में छठा, आठवां और बारहवां माना गया है। छठे भाव का शनि बहुत ही शक्तिशाली और प्रबल शत्रु देता है, लेकिन यहां पर शुक्र स्थित होने से शत्रुओं का ह्रास होता है। कुण्‍डली के अनुसार जातक के बलशाली शत्रु होंगे और अंतत: वे समाप्‍त हो जाएंगे। श्रीकृष्‍ण अपने लीला के अधिकांश हिस्‍से में शत्रुओं से लगातार घिरे रहते हैं। चाहे जन्‍म से लेकर किशोरावस्‍था तक या बाद में महाभारत में पाण्‍डुपुत्रों के सहायक होने के कारण पाण्‍डुओं के सभी शत्रुओं से शत्रुता हो। एक के बाद एक प्रबल शत्रु उभरता रहा और श्रीकृष्‍ण उनका शमन करते गए।* 

 

*श्रीकृष्‍ण का लग्‍नेश ही छठे भाव में स्‍वग्रही होकर बैठ गया है। ऐसे में वे खुद प्रथम श्रेणी के पद नहीं लेते हुए भी हर प्रतिस्‍पर्द्धा में, हर युद्ध में, हर वार्ता में वे श्रेष्‍ठ साबित होते रहे। यह लग्‍न और षष्‍ठम का बहुत खूबसूरत मेल है।* 

 

(3).   *यदि द्वितीय भाव निष्किलंक हो यानी किसी ग्रह की दृष्टि अथवा दुष्‍प्रभाव न हो और द्वितीयेश उच्‍च का हो तो जातक ऊंचे स्‍तर का वक्‍ता होता है। वृषभ लग्‍न में द्वितीयेश बुध उच्‍च का होकर पंचम भाव में बैठता है तो श्री कृष्‍ण को ऐसे वक्‍ता की कला का धनी बनाता है कि भरी सभा में जब कृष्‍ण बोल रहे हों तो कोई उनकी बात को काटता नहीं है। शिशुपाल जैसा मूर्ख अगर मूर्खतापूर्ण तरीके से टोकता भी है तो उसका वध भी निश्चित हो जाता है।* 

 

(3).  *पराक्रम भाव (तृतीय भाव):* 

 

*श्रीकृष्‍ण की कुण्‍डली में तृतीय भाव का अधिपति चंद्रमा उच्‍च का होकर लग्‍न में स्थित है। इसके साथ ही यह भाव उच्‍च के शनि और उच्‍च का मंगल से भी दृष्टिगत है। जिस भाव पर मंगल और शनि दोनों की दृष्टि हो उस भाव से संबंधित फलों में तीव्र उतार चढ़ाव देखा जाता है। एक तरफ हमें चौअक्षुणी सेना और कौरवों के महारथियों के बीच स्थिर भाव से खड़े होकर अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित करते कृष्‍ण दिखाई देते हैं, तो दूसरी ओर उन्‍हीं कृष्‍ण को हम रणछोड़दास के रूप में भी देखते हैं। यह दोनों पराकाष्‍ठाएं मंगल और शनि के तृतीय यानी पराक्रम भाव को प्रभावित करने के कारण ही प्रतीत होती हैं।* 

 

(4).   *एकादश भाव के बृहस्पति:* 

 

*एकादश भाव किसी भी जातक के बड़े भाई और मित्रों के बारे में बताता है। यहां उपस्थित बृहस्‍पति प्रदर्शित करता है की जातक के जीवन में इन दोनों का ही प्रमुख रूप से अभाव रहेगा। श्रीकृष्‍ण से पहले पैदा हुए सात भाई बहन कंस के कारण काल का ग्रास बन गए। बलराम को भी अपनी मां की कोख छोड़कर रोहिणी की कोख का सहारा लेना पड़ा। सगे भाई होते हुए भी सौतेले भाई की तरह जन्‍म हुआ। बाद में स्‍यमंतक मणि के कारण श्रीकृष्‍ण और बलराम के बीच मतभेद हुए, महाभारत के युद्ध में भी बलराम ने भाग नहीं लिया क्‍योंकि पाण्‍डवों के शत्रु दुर्योधन को उन्‍होंने गदा चलाने की शिक्षा दी थी। कुल मिलाकर भ्राता के रूप में बलराम कृष्‍ण के लिए उतने अनुकूल नहीं रहे, जितने एक भ्राता के रूप में होने   चाहिए थे।* 

 

*यहां लाभ भाव में बैठा वृ‍हस्‍पति वास्‍तव में कृष्‍ण की सभी सफलताओं को बहुत अधिक कठिन बना देता है। यह तो उस अवतार की ही विशिष्‍टता थी कि हर दुरूह स्थिति का सामना दुर्धर्ष तरीके से किया। इस भाव में वृहस्‍पति के बैठने पर जातक को कोई भी सफलता सीधे रास्‍ते से नहीं मिलती है। जातक को अपने हर कार्य को संपादित करने के लिए जुगत (Wisdom) लगानी पड़ती है।* 

 

(5).   *चतुर्थ भाव का सूर्य:* 

 

*वैदिक ज्योतिष के सूत्रों के अनुसार सूर्य जिस भाव में बैठता है, उस भाव को सूर्य का ताप झेलना पड़ता है. श्रीकृष्‍ण की कुण्‍डली में सूर्य चतुर्थ भाव में बैठता है, तो माता का वियोग निश्चित था। माता देवकी और माता यशोदा दोनों को पुत्रवियोग झेलना पड़ा था। जन्‍म के बाद श्रीकृष्‍ण अपनी जन्‍मदायी मां के पास नहीं रह पाए और किशोरावस्‍था में पहुंचते पहुंचते पालन करने वाली माता के भी साथ नहीं रह   पाए।* 

 

(6).   *छठे भाव में उच्च के शनि:* 

 

*भगवान श्रीकृष्‍ण की कुण्‍डली में जो सबसे शक्तिशाली भाव है वह है छठा यानी रोग, ऋण और शत्रु का भाव। श्रीकृष्‍ण का जन्‍म विपरीत परिस्थितियों में होता है, शत्रु की छांव में होता है। छठे भाव में उच्‍च के शनि ने उन्‍हें शक्तिशाली शत्रु दिए। षष्‍ठम भाव मातुल यानी मामा का भी होता है, तो यहां मामा ही शत्रु के रूप में उभरकर आए।* 

 

(7).   *सप्तम भाव में राहु:* 

 

*भगवान श्रीकृष्‍ण का आध्यात्मिक (लग्न में स्थित केतु की वजह से) संबंध समस्त गोपिकाओं से उद्धारक के रूप में रहा। कहा जाता है कि भगवान श्री कृष्ण की कुल 16 हजार रानियां थी। श्रीकृष्‍ण की जीवन लीला बताती है कि वे अकेले भी हैं और सब के साथ भी।* 

 

*सप्‍तम भाव व्‍यवसाय में साझेदार का, युद्ध में आपकी ओर से लड़ रहे सहयोद्धा का भी माना जाता है।* 

 

*भगवान श्री कृष्ण जीवन लीला की प्रमुख घटनाएं:* 

 

(1).   1 साल, 5 माह, 20 दिन की उम्र में माघ शुक्ल चतुर्दशी के दिन अन्नप्राशन- संस्कार हुआ।

(2).   2 वर्ष की आयु में महर्षि गर्गाचार्य ने नामकरण-संस्कार किया।

(3).    2 वर्ष, 10 माह की उम्र में गोकुल से वृन्दावन चले गये।

(4).     5 वर्ष की आयु में कालिया नाग का मर्दन और दावाग्नि का पान किया।

(5).     7 वर्ष, 2 माह, 7 दिन की आयु में गोवर्धन को अपनी उंगली पर धारण कर इन्द्र का घमंड भंग किया।

(6).     10 वर्ष, 2 माह, 20 दिन की आयु में मथुरा नगरी में कंस का वध किया एवं कंस के पिता उग्रसेन को मथुरा के सिंहासन दोबारा बैठाया।

(7).     11 वर्ष की उम्र में अवन्तिका में सांदीपनी मुनि के गरुकुल में 126 दिनों में छः अंगों सहित संपूर्ण वेदों, गजशिक्षा, अश्वशिक्षा और धनुर्वेद (कुल 64 कलाओं) का ज्ञान प्राप्त किया एवं पाञ्चजन्य शंख को धारण किया।

(8).    12 वर्ष की आयु में उपनयन (यज्ञोपवीत) संस्कार हुआ।

(9).    28 वर्ष की आयु में रत्नाकर (सिंधुसागर) पर द्वारका नगरी की स्थापना की।

(10).    38 वर्ष 4 माह 17 दिन की आयु में द्रौपदी-स्वयंवर में पांचाल राज्य में उपस्थित हुए।

(11).     75 वर्ष 10 माह 24 दिन की उम्र में द्यूत-क्रीड़ा में द्रौपदी (चीरहरण) की लाज बचाई।

(12).     89 वर्ष 3 माह 17 दिन की आयु में कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को ‘भगवद्गीता’ का उपदेश देने के बाद महाभारत-युद्ध में अर्जुन के सारथी बन युद्ध में पाण्डवों की अनेक प्रकार से सहायता की. 

(13).     89 वर्ष 7 माह 7 दिन की आयु में धर्मराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक करवाया।

(14).     125 वर्ष 5 माह 21 दिन की आयु में दोपहर 2 बजकर 27 मिनट 30 सेकंड पर प्रभास क्षेत्र में स्वर्गारोहण और उसी के बाद कलियुग प्रारम्भ हुआ। 

 

*(भगवान श्री कृष्ण उपरोक्त जीवन लीला का उपरोक्त विवरण पौराणिक शास्त्रों पर आधारित है. कई शोध अध्ययनों के अनुसार उपरोक्त वर्णित तिथियों में अंतर भी बताया गया है ऐसी किसी भी गलती के लिए क्षमा प्रार्थी हूं.)*